Sunday, November 27, 2011

दो पल


कितने दिन हो गए हैं
चैन से बैठी नहीं दो पल को
खुद से करने के लिए दो बातें,
पता नहीं ज़िन्दगी की किस उधेड़-बुन में
निकल गए कितने दिन
और कितनी रातें.

आइना तो आजकल रोज़ देखती हूँ
पर खुद को देखे हुए
एक अरसा हो गया है.
कभी याद आता है अपना
सिसकियों से भरा चेहरा,
तब कितना वक़्त मिल जाता था मुझे
अपने गम को आंसुओं के साथ बाँटने के लिए.
अब तो मैं मशीन की तरह
चले जा रही हूँ
क्या सच में जीना भूल गई हूँ मैं?

बहुत दिनों से दिल खोल के
एक ठहाका भी नहीं मारा है मैंने.
कहाँ चले गए हैं मेरे सारे दोस्त,
ज़रूरत है मुझे उनकी
सपनों की उड़ाने भरनी हैं उनके साथ.

कितनी अकेली हो गई हूँ मैं
पर दो पल फ़िर भी नहीं मिलते
कभी खुद से बात करने के लिए.
सोचा, चलो आज क्यूँ न सही
लेकिन उफ़, कितना अच्छा होता गर
साए से साथ छुड़ाना भी मुमकिन होता.
खैर, तलाश अभी भी ज़ारी है...