एक कोरे कागज़ का एकाकीपन
बस वही चाहिये
एक नयी नज़्म लिखने के लिये।
लिखना तो और भी बहुत है
कुछ सपनें, कुछ अरमान,
कुछ चाहत, औ कुछ दुयाएँ,
पर कोरा कागज़ नहीं बचा।
सबमें एक मिलावट आ गयी है,
खयालों में, औ सवालों में भी,
सब मिलावट के साथ ही
कागज़ पर बिखरे पड़े हैं।
कुछ कागज़ों पर से निशाँ
मिटा नहीं सकते हम
और कोरा कागज़... वो कहीं नहीं है।
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